Friday, May 10, 2019

सप्तांकनी के पिता मंजुरआर्य मंजुलगिरी के एक बस्ती के मुखिया थे और चित्रांकनी बहुत सुन्दर और आपने पिता कि एकलौती पुत्री थी पर्वत कि शुष्क चट्टान के उपरान्त उसमे दुर्वा दल की हरियाली और उस पूरब कि ओर  से पुष्पमुकुल युक्त कानन कि अंजुरी से निकलता सूर्य खिडकी से दिख रहा था उसअनुपम उन्मन प्रात कि लोहित अठखेल उसी के अनुरूप नूतन नीर निलय का गिरता झरना जो श्री श्री का निनाद निर्दिष्ट कर रहा चित्रांकनी का पिता विमर्श मे खोये उस दिन को सोच रहा जिस दिन उसकि बेटी कामदेव कि और विश्वकर्मा कि देखरेख मे अरुण जन्म लेकर कर मंजुरआर्य के आंगन मे अयी थी उसे संवेदना नही थी फिर वह धीरे धीरे बढती गयी यौवन कि डाल पर चढ गयी और मंजुरआर्य के नेत्र समक्ष क्षण क्षण उसके एक एक पहल व्यतीत होता वह चंचल मधुर सी सप्तांकनी कुंज कि झोके से लडती तो उन झोको मे एक अनवरत अघट्य सूगन्ध संचार बिना मध्यम के मंजुलगिरी मे फैल जाता वो और उसकी सखियो कि घुमक्कड़ी और इधर उधर शरारते करना एक उन्मन दृष्य सुशोभित करता कितना आनन्द है बेटियो को पालना घर मे आलौकिकता छा जाती है मंजुरआर्य के मन मे  उसका विवाह कि वेदना कि चिंता होने लगी वो सोचता ऐसा कौन सा राजकुमार जो मेरी पुत्री सप्तांकनी को सभालकर रखे और उसकी पुत्री कि कामनीय प्रभाव जगतप्रत को उज्जवलित करती रहे


अगली सुबह कि अरुणाई मे मंजुरआर्य सप्तांकनी के कक्ष मे जाता है और सो रही उस कुसुम को जागाता है और उसेसे पूछता है बेटी आज एक प्रश्न कई दिन से पूछना चाहता था परन्तु पूछ न सका सप्तांकनी उठकर बैठ जाती है और मंजुरआर्य से कहती।है कहिऐ पिता जी क्या बात है तुझे कैसा संसार चाहिए और कैसा प्रभु चाहिए
नित तेरे लिए मै वर ढूडु और तुझे विधा करु सरमाई सी सप्तांकनी वहा से अन्दर भाग गयी और फिर मंजुरआर्य
अरे सुन बेटी आज मै जा रहा हो त्रिपल और दो तीन मित्रो से मिलने त्रिपल ने तेरे लिए एक अच्छा सा लडका देख रखा है उससे बाते भी कर लूगा फिर सप्तांकनी बस दरवाजे झांकती है और मुस्कुराती मंजुरआर्य
 पर्वतो कि क्षेणीयो से होते हुये अपने मित्रो से मिलने  निकल पडा  
वह घोडे पर सवार किसी अन्य राज्य मे जाता और सम्मानित परिवारो से मिलता एक पुरुष जो देवणी के निवासी मंजुरआर्य का मित्र  है मिलते ही उससे कहता है  तुमसे कुछ बात करनी थी तभी मंजुरआर्य क् मित्र त्रिपल कहता है आओ मित्र अन्दर आओ मंजुरआर्य त्रिपल के घर मे अन्दर जाता है त्रिपल उसे बिठाता है और उसे कुछ लेने को कहता उसके सामने पानी कि गिलास और कुछ मिठाईया त्रिपल बेटी आयाम रख देती है और बगल मे बैठ जाती
आयाम -  जी नमस्कार कैसे आना हुआ बडे तय दिन बात आये है सप्तांकनी कैसी है
मंजुरआर्य - बेटी वो ठीक है उसी कि व्याह कि चिंता है किसी तरह कोई राजकुमार  मिल जाये प्रयः मै उसका विवाह कर दू
त्रिपल-मित्र चिंता मत करो और बताओ
मंजुरआर्य - त्रिपल तू तो जानता मै तेरे पास किसी राजकुमार के बारे मे पुछने के लिए आया हूँ। यदि तुम्हारी नजर मे कोई हो तो बताओ
त्रिपल - हां मित्र मैने एक पुरूष देख रखा जो  यहा उत्तर कि ओर चिकशनेलर  राज्य का एक लौता राजा है यदि तुम कहो तो मै सप्तांकनी की विवाह का प्रस्ताव रखू
मंजुरआर्य - क्यो नही मित्र मै तुम्हारे पास इसी कार्य के निवारण को आया था यदि तुम कल शीघ्र ही विवाह प्रस्ताव राजा आर्यावर्त के समझ रख दो तो आभार होगा
त्रिपल - ऐसी बात नही मित्र कल हम दोनो बेटी सप्तांकनी के लिए वहा जायेगे
त्रिपल - अच्छा तुम सर्वप्रथम जलपान करो फिर हम दोनो बात करते है।
 मंजुरआर्य - जलपान ककरने के बाद गिलास से पानी पिता है और समय बहुत बीत चुके थे मंजुरआर्य को उसके बस्ती मे भी पंहुचना था नही तो विभावरी धीरे धीरे प्रकोष्ठ को छेक रही थी तो मंजुरआर्य त्रिपल से आज्ञा लेके अपने घर  मंजुलगिरी को चल दिया वह घोडे पपर सवार हुआ आयाम और त्रिपल ने धन्यवाद किया और मंजुरआर्य वहा से मंजुलगिरी को चल पडा मन्द मन्द वायु कि शीतलक वाह बह रही थी मंजुरआर्य अभी पर्वतो के रास्ते से घोडे से जा रहा था अब वह घर के नजदीक पहुंच गया सप्तांकनी  घर के बाहर बैठी थी और मंजुरआर्य घोडे से उतरा और सप्तांकनी के पास गया
 बेटी मैने तेरे विवाह के बारे मे बात कि
 वह एक अच्छे राजा है जिनका नाम आर्यावर्त है सप्तांकनी मुस्कुराकरा कर कहती पिता जी आपभी न
 मंजुरआर्य - बेटी तुम्हारी मां कहा गयी सप्तांकनी - मां थोडा बस्ती के कुछ स्त्रियों मिलने गयी है निमान्त्रण देने आप कोज्ञात भी है तीन दिनो बाद दिपावली का त्योहार है और मां हमेशा कि तरह इसबार भी एक प्रयोजन होगा जिसमे दीपप्रतियोगिता होती है
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 फिर वही निष्ठ ध्यान मंजुरआर्य पुनः त्रिपल के पास पंहुचा और त्रिपल तनिक समय व्यर्थ न करते हुये सभी तैयारियों के साथ तागे पर बैठ गया और दोनो बडे 

Sunday, May 5, 2019

हिन्द गान
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हे हिन्द अनुराग नव भारत राष्ट्र
चिर निधि काव्य सौन्दर्य शास्त्र

सिद्धांत क्रांत नवल हिन्द ब्रम्हांड
प्रचंड वीर हिन्द सावर
गुंजन गौरावित हिन्द राष्ट्र
नव हिन्द राग गाये हिन्दु समाज
वंद सुचि प्रधान हो निधान
चिर समान हो विहान

हिमान्त प्रान्त सरहिन्द राज्य
हे भू नाथ कर हिन्द प्रसार
अम्ल गंग रंग हिन्द धार
मूक नीर अमृत प्रसंग
अखण्य गैरव भारत भाज्य
नव मन्द राग जाये इतर राष्ट्र

नितांत शांत नीत अशोक चक्र
वक्र लक्ष्य मार्गदर्शक लोक
चिन्ह गर्व हिन्द राष्ट्र कमल
भारत हिन्दी हिन्द समाज
नव्य मधु नव भव भू निर्माण
हिन्द गान को हो परिश्राण


Saturday, May 4, 2019

अन्धेरी रात की सड़के
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निसठुर धूमिल  धुधलि रात
साय साय तीव्र मुग्ध निनाद!
छिन्न भिन्न रतिका का सुपरभात
विमल इन्दु कि वाद विवाद!

मेघ  छवि सि कडके
अधेरि रात की सडके

निहित राज अनेक अवर्णीय
तिक्ष्ण भूरा प्रकाशहीन!
काला फिका म्लान दृश्य
नेत्र भ्रमण होता  भिन!

देख वसुधा का अन्तस्थल धडके
अधेरि रात कि सडके

अन्धकार युक्त विहवल रजनी
अहवहन झंझरी अविरल प्रखर!
होता विराट घनेरि रात रात्नि
जैसे समझ खडा काला शिखर!

रात्रि  भ्रमण कर मन बहके
अन्धेरि रात का सडके
समय

समय आ रहा अनन्त शान्त से
न बूझो न देखो क्लान्त श्रान्त से
कभी समय केवल मात्र नाम था
उसमे भी केवल घ्रर उद्दम था
कई बर्ष पहले
खुली शाम थी
      आकाशगंगा के पहले
               तम शान्त थी
प्रलय आ गया फिर कोश प्रान्त से
सचेत किया किया न अंकित
प्रलय का होना चाहिए सिध्दांत से
मची फिर तबाही हुआ वो न संकेत
 कई बर्ष पहले
 खुली शाम थी
         आकाशगंगा के पहले
                  तम क्लान् थी
निश्चय ही आयी घटा को आगडाई
कई वर्ष बीते दुनिया बस आयी
उसमे भी थमी न आग बन पायी
कभी ज्वाला फूटे कभी  भूकम्प आयी
कई बर्ष पहले
खुली शाम थी
    आकाशगंगा के पहले
             तम क्रान्त थी
नीली भंग जिसकी बनी पृथ्वी वह
बसे चिर चिरागुन बसे आर्थिवी वहा
देखा फिर मंजर बने पार्थिवी वह
आज वहा देखो, देखो आबादी वहा
कई बर्ष पहले
खुली शाम थी
       आकाशगंगा के पहले
          तम शान्त अक्रन्त थी



छाये रे बादल

छाये रे बादल बलहारी मेघ व्योमपति छाये
पर्ण कुटीर की छाया मे अपने दृगजल लाये
नव अंकुर फूट रहे अमृत कलश के भेद से
सुरभि समीर प्रवाहन अतितीव्र प्रमोद से

सुरज कि छवि मुदि मेघ के आह्वान से
देख मोहक मधुर बादल मन हरषे सावन मे
जलदल पति मेघ झुर्रिया टपकाते
पराग मुक्ता निर्माण कर धरा अचल कर जाते

विशाल जलधि कि सजगदृग मधुर गीत गाते
सन्ध्या कि गन्धवाह मे प्रतिरूप कुमुद छिडकाते
नव - समीर लाके जल आन्तस्थल बरसा गये
दुर्वादल मे रजत धार सींच हरियाली ला गये

छिडक व्योम जल गगरी छिडका गये
चित्त मे घनपति जल प्रति प्रेम हरसा गये
तट - तट दृगजल भर गोरा बादल घिर रहे
क्षितिज तरूवर धैर्ध पर मधुर वेग से बढ रहे

इन्द्रधनुष
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झलके घटा इन्द्रधनुष कि
भरे सतरंग चमक पुलक भरे

वह झलक रहा व्योम धरा के सीने मे
पुलकित किया आकाश को
अन्तर लिये धनु रंगिले से
चमक पडा था धीरे से
व्योम धरा के सीने मे
मेघ आये सतरंगे आाये
सतरंगो से इन्द्रधनुष भाये
अन्नत कण धनुष सतरंगो के
झलके थे धीरे से व्योम धरा के सीने मे
निकला क्षितिज पर जो देखने मै
भागा
रेशम स लटक रही पोशाक सीने का
धागा
प्राता कि निशा मे जब सपने से
जागा
देखा सुबह कि अरुणाई मे इन्द्रधनुष
 सुभागा
नभ के उजाले मे निकला एक कोष मे
आधा
चन्द्र स चमके सतरंग यौवन पर उससा न
 दागा
पावस के बाद आज मनोहर उषा मे
ज्यादा
कडकते नभ मे मेघ निनाद मे कडकड सी आवाज
चिर नवल का मधुर रुप इन्द्र सुहाना पे
रंग राज
दर्शाता चित्र अनुरुप बरसातो के लाली के
 बाद
गिरते थे बूँद झर झर प्रसुन रुप चमेली के अवसाद
अतुल अपार शक्ति देह लिये इन्द्रनीलमणि
 सा विस्तार
अंन्त्र सतरंग उषा का प्रकाश  लिये अर्धचन्द्र
 स आकार
चमक निश्चल रुप कुंदन लिये धनु मणि
 उद्गार
सतरंग अंचल के भंग लिये चमक मणि
 अपार
अंतरंग  तरंग चंचल रंग लिये तरंग कण
 बौछार
मंडल मे चन्द्र आकार लिये धरे सतरंग
 भाल
रशि्म विषम कण लिये बिखेरे सतरंग
 धार
नील मणि सी ठिठक रही तितली सा
 वो भंग
जहाँ से तितली लयी अपने उत्सुकता
 के रंग
इन्द्रधनुष  बिखेर ता धरा पर कण
 सतरंग
भरी उमंग झडती जाये झरनो सा
 धरे उमंग
नील मणि स चमक रहि मणि इन्द्र
 के रंग
स्वर्ण रशिम को छिडक रही इस धरा
 के पास
मणि देख सब अश्चर्य हुये सतरंग हुआ
 आकाश
नवल रंग नवल पुलक भरे धरे मेघ
 केश पाश
काले काले मेघ हटेअहवाहन सतरंग
 झष
पालकि के शोभा  जडे मणि मे मुक्तक
 काँच
चले नक्षत्र संग मणि  टोली लिये धनु के
 आँच
सुवर्ण  सतरंगो  का भूधर पर स्नेहित
 नाच
स्निग्ध प्रदीप्त प्रकाश लिये रंग नील
 वृन्द
सुरभ्य थिर  रहा सतरंग रजनी का  दुग्ध
 चन्द्र
अनादि है इस जहाँ मे तेरी माया की। ये
 पंथ
उडे  बिखरे जहाँ धरे सतरंग केभंग
विहंग
चमकिली सतरंगनी कि ओस होते तेरे
 विस्तृत
फैले वसुधा। मे कण तेरे रुप भरे जल
 अमृत
संतरण जो देख लिया पावस अनुरुप बुझी
तृप्त
व्याकुल था दर्शन पा लिया उस दिन मन
 चित्त
 रत्न हिलोर से भरे रत्न तेरे कन्ठ रंग
 कुंडल
जो प्रकशित कर रहा नीलमणि सतरंग
 मंडल
धरे सात रंग  रखे मस्तक अकार चंद
 चन्दन
भाव बाधा मुक्त तु चमक बिखेरे नभ
 चमन
निरन्तर चमके नव किसलय पर कुछ
पल
उत्थान धीरे तनिक क्षण उपरान्त घेरे  व्योम
 तल
थोडे समय मे रंगच्छवित से कर देता संसार
 अचल
प्रकाश अमल विस्तृत स्वर्ग लोक तक फैल जाये
कभी किरकिरी का नेत्र भ्रमण रूप वसुधा पर दर्शाये
मुकुट सतरंग साथ मेघो का पंख लिये मन हर्शये

आत्मा चित्रांकनी

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Friday, May 3, 2019

आत्मा चित्रांकनी मित्रो बहुत बाद आज मैने आपनी छोटी खण्डकाव्य का प्रकाशन किया मित्रों यदि आप सभी सहोभाव से मेरे इस काव्य को सराहे तो शायद फिर से एक बार एक बेहतर कवि का उदय हो मेरे प्रार्थना है मित्रो एक जरुर मेरे इस संग्रह को पढे ये आप को कही भी मिल सकती है आप इसको अमेजान से भी प्रात कर कते है धन्यावाद करन कोविन्द Aatmachtrankani blogspot.com

Thursday, May 2, 2019

भला कैसे भूल सकता हूँ। उस रात कि पुष्पांजलि को जिसमे ह्रदय तार मन्द अमन्द अन्तस्थल मे गुंजित मधुवीणा प्रात हल्कि विभावरी करते नक्षत्र प्रचार उस तारे को अच्छे से जानता हूँ। भला कैसे भूल सकता हूँ कुन्ज कि किसलय मे मधुसूदन के प्राण नेह के अधरो से गिरता प्रतिपल राल उडती आती वृक्ष अंक से मन्द चाल कैसे युक्त से आवरूध्द कर सकता हूँ। भला कैसे भूल सकता हूँ। रोज खद्दर जीवन से रूष्ट करता विलाप कैसे सभालू जैविक क्रिया कलाप हो मेरे कवि लक्ष्य का उद्दार क्यो कठिनाईयों से पीछे भागता हूँ। भला कैसे भूल सकता हूँ।
मन्दांकिनी
+++++++++
चित्रकूट से बहती हो
वीणा निनाद सी छनती हो
रमायण गाथा कहती हो
बर्षो से रहस्य को ढलती हो
जल से विनिमय करती हो

जल मे एक उष्मा संचार है
वही जीवन संसार है
छन छन जल छनकार है
धरा का निर्मल कंचनार है
लोक कथा सा खिल जाता बार बार है
मंदाकिनी मन्द मन्द प्रतिपल
प्रवाह अटल रंग अंचल
सफल छवि रुप कमल

Wednesday, May 1, 2019

मधुमय यौवन लौटा दो!

मधुमय यौवन लौटा दो।.

विश्व की सारी व्याथाये राख संग मेरे धर दो
रक्त की सारी शिराओ मे उस्मा -संचित कर दो
संशय को सत्य कर दो!
मधुमय जीवन लौटा दो!
वो ऋतुओ कि नव - भव - यौवन
वो वायु की शीतलक- वैभव
कदम्ब - दल का सुगन्ध- मोहक
            सारी कलाये दिखला दो!
             मधुमय जीवन लौटा दो!
किरण - कुन्जो का अनुपम- दृश्य
चंचल वृक्ष से छनती छाह - मधुर
आवेग - मन्द- राग उस झंझा का
               रूख मुझपर बरसा दो!
             मधुमय जीवन लौटा दो  !
           

करन कोविंद